Thursday, February 7, 2013

आखिर बात-बात में इस्‍लाम खतरे में क्‍यों पड़ जाता है?


लड़कियों के रॉक बैंड पर फतवा! आखिर बात-बात में इस्‍लाम खतरे में क्‍यों पड़ जाता है?




संदीप देव। ये हम किस देश में रह रहे हैं? और इससे भी बड़ी बात ये कि यह देश अभी कौन-से काल में जी रहा है? 21 वीं सदी या फिर 18 वीं सदी...!! कुछ समझ में नहीं आ रहा कि एकाएक कट्टरता का जहरीला बेल क्‍यों समाज को जकड़ने के लिए फैलने लगा है? कश्मीर की लड़कियों के पहले रॉक बैंड 'प्रगाश' के खिलाफ एक मुल्‍ला बाहर निकला और उसने फतवा जारी कर दिया और उसे घाटी के अलगाववादियों के साथ-साथ वहां के नागरिक समाज के एक हिस्‍से का समर्थन भी मिल गया, लेकिन अब इन सब पर आश्‍चर्य नहीं होता!
जम्मू-कश्मीर के मुफ्ती बशरुद्दीन अहमद ने घाटी में लड़कियों के एक रॉकबैंड 'प्रगाश' को गैर इस्लामिक करार देते हुए उनके खिलाफ फतवा जारी कर दिया। इस फतवे से आहत और अपने व परिवार वालों के जीवन की सुरक्षा के लिए 'प्रगाश' बैंड की तीनों लड़कियां नोमा नजीर, फराह दीबा और अनिका खालिद ने संगीत को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया है। सूचना तो यह भी है कि इन तीनों ने कश्‍मीर घाटी को भी छोड़ने का मन बना लिया है।
'प्रगाश' का मतलब है 'प्रकाश की किरण', लेकिन मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड और मुस्लिम धर्मगरुओं ने लड़कियों के इस रॉकबैंड को इस्‍लाम के खिलाफ मानते हुए प्रकाश और आशा की इस किरण को हमेशा के लिए बुझा दिया! हद तो यह हो गई कि श्रीनगर के ग्रैंड मुफ़्ती मुफ़्ती बशीरूद्दीन ने भारतीय समाज में सारी बुरी चीज़ों की जड़ ही संगीत को बता दिया! तो क्‍या इस्‍लाम इतना कमजोर है कि संगीत, कला, फिल्‍म, साहित्‍य आदि से जब तब उसके मिटने का खतरा उत्‍पन्‍न हो जाता है?
इससे पहले कुछ मुल्‍ले इकट्ठे हुए और कमल हासन की फिल्‍म 'विश्‍वरूपम' पर प्रतिबंध की मांग लेकर तमिलनाडु सरकार के पास पहुंच गए और सरकार ने तत्‍काल इस पर प्रतिबंध लगा दिया। अभी दिल्‍ली में विश्‍व पुस्‍तक मेला लगा है, लेकिन इससे पहले कोलकाता पुस्‍तक मेले में सलमान रुश्‍दी को आने से वहां की ममता बनर्जी सरकार द्वारा रोका जाना और उससे भी पहले तस्‍लीमा नसरीन जैसी लेखिका को वहां से न्‍यौता न भेजा जाना, दर्शाता है कि हमारा समाज और हमारी राजनीति दोनों सड़ गल चुकी है। वह इंसानियत से अधिक धर्म के आधार पर सोचती है और उनके लिए धर्म का मतलब सिर्फ फतवा, वोट बैंक और कट्टरता से रह गया है!
अब सवाल उठता है कि इन सब के लिए जिम्‍मेदार कौन लोग हैं? हमारे नेता, राजनीति या हमारा पूरा समाज ? राजनीतिज्ञों को इसके लिए दोषी ठहराना बेहद आसान है, लेकिन मत भूलिए वे वही करते हैं जो हमारा समाज चाहता है और सच पूछिए तो हमारा समाज कट्टरता की भेंट चढ रहा है। अभिव्‍यक्ति की आजादी को रोककर देश की कला, साहित्‍य और संगीत पर बंदिशें दर्शाता है कि हम मध्‍ययुग से भी पीछ पाषाण युग में पहुंच गए हैं, जहां इन सब की समझ विकसित नहीं हो पाई थी। वास्‍तव में वर्तमान समाज की समझ भी अविकसित और कुंठित है। वह बात-बात में धर्म का फतवा पढने के लिए तैयार नजर आता है।
किसी भी देश के लेखक, चित्रकार, फिल्‍मकार उस देश के 'सांस्‍कृतिक राजदूत' होते हैं। समाज से यह उम्‍मीद की जाती है कि वह अपने इन राजदूतों को अभिव्‍यक्ति की आजादी देगा न कि उन पर बंदिश लगाएगा। कश्‍मीर घाटी का प्रगाश बैंड, फिल्‍मकार कमल हासन, लेखक सलमान रुश्‍दी व तसलीमा नसरीन अपने अपने माध्‍यम से अपनी सृजनात्‍मकता को अभिव्‍यक्ति दे रहे हैं, लेकिन वोट बैंक की भाषा समझती सरकारें और भय की भाषा समझाते कटटरपंथियों के लिए इंसान, इंसानियत और उसकी आजादी आज सबसे बड़ी दुश्‍मन हो गई है!
हमारे धर्म के ठेकेदारों, मुल्‍ला-मौलवियों को यह सोचने की जरूर है कि क्‍या हमारा धर्म (कोई भी धर्म हो) इतना कमजोर है कि कुछ लड़कियों के संगीत बैंड, किसी मकबूल फिदा हुसैन की कूचियों, किसी सलमान रुश्‍दी की 'सेटेनिक वर्सेस' और किसी तसलीमा नसरीन की लेखनी से वह बिखर जाएगा? क्‍या हमारा धर्म रेत की नींब पर खड़ा है, जो किसी व्‍यक्ति के फूंक मारने से भरभरा कर गिर जाएगा? यदि हमारा धर्म इतना ही कमजोर है तो फिर इसे गिर जाना चाहिए ताकि समाज में नए धर्मो का उदय हो सके, जो मानवता पर आधारित हो और जो इतना लचीला हो कि उसमें हर कलम, हर कूची और हर विचार को आत्‍मसात करने की क्षमता हो!
सभी धर्मों में एक पर एक सुधारक हुए हैं और वो सुधार तभी कर पाए हैं जब उन्‍होंने तात्‍कालिक धर्म पर सवाल खड़ा किया है। यदि सवाल खड़ा नहीं करते तो हम गौतम बुद्ध और बौद्ध धर्म से परिचित नहीं होते, यदि सवाल खड़ा नहीं करते तो महावीर की शिक्षाओं से हम वंचित ही रह जाते, यदि सवाल खड़ा नहीं करते तो महर्षि दयानंद के विचारों की सुगंध हमें नहीं मिल पाती,यदि सवाल खड़ा नहीं करते तो ओशो जैसे प्रबुद्ध विचारक 'जोरबा द बुद्धा' के जरिए समाज में रहकर संन्‍यस्‍त का भाव जगा नहीं पाते।
नदी और समाज तभी जीवित रहता है, जब तक उसमें प्रवाह है। जिसमें प्रवाह नहीं उस पानी और उस समाज से बदबू उठना शुरू हो जाता है। दुनिया भर की पुरानी सभ्‍यताओं में यदि भारत की सभ्‍यता और संस्‍कृति आज जीवित है तो सिर्फ इस वजह से कि यहां समय-समय पर समाज सुधारक आकर इसके प्रवाह को बनाए रखने में अपना योगदान देते रहे हैं। धर्म में बदलाव व्‍यवस्‍था से नहीं विद्रोह से से आता है। ईसा मसीह भी और मोहम्‍मद साहब भी अपने तात्‍कालिक समाज के लिए एक विद्रोही ही थे तभी वो समाज के विरुद्ध नए विचारों का सृजन कर सके। उस वक्‍त के कठमुल्‍लों से यदि वे डर जाते तो आज न ईसाई धर्म सामने आ पाता और न ही इस्‍लाम...!
जिन्‍हें आज आप भगवान, ईशपुत्र, ईश्‍वरदूत, पैगंबर, नबी कहते हैं वो और कुछ नहीं, बल्कि तात्‍कालिक समाज के विद्रोही विचारक थे, जिन्‍होंने अपने विचार और अपने ज्ञान को फैलाना चाहा और उसे फैलाया। उनके विचारों को उस समय का समाज आत्‍मसात करने को तैयार नहीं था, इसलिए आज की ही तरह उस समय के समाज व धर्म के ठेकेदारों ने भी उन सभी के विरुद्ध धर्म की आड़ लेकर युद्ध की घोषणा और फतवा जारी किया था। कृष्‍ण को मथुरा छोडकर द्वारका नगरी बसानी पड़ी थी, ईसा को सूली दी गई थी, मुहम्‍मद साहब को मक्‍का से मदीना भागना पड़ा था और आधुनिक काल में ओशो को अमेरिका की रीगन सरकार ने जहर देकर मारा था!
विद्रोही विचारकों को भागना या सूली पर चढ़ना तब भी पड़ा था और आज भी पड़ रहा है! न तब का समाज बदलाव को स्‍वीकार करने के लिए तैयार था और न आज का समाज ही बदलाव को तैयार है। मेरे लिए हर कलाकार चाहे वो सलमान रुश्‍दी हो, मकबूल फिदा हुसैन हो, तसलीमा नसरीन हो-सिर्फ एक स्‍वतंत्र विचारक हैं, जिनके विचारों से हमारी सहमति-असहमति हो सकती है, लेकिन उनके खिलाफ फतवा जारी करने का न तो हमें कोई अधिकार है और न ही हमारी कोई ठेकेदारी है।
...और यह कट्टरपंथी सोच इस्‍लाम में खुद ज्‍यादा ही नजर आता है, तभी तो बात-बात में 'इस्‍लाम खतरे में है' का नारा दे दिया जाता है! जैसे कुछ लोगों की अभिव्‍यक्ति की आजादी छीन कर इस्‍लाम की बुनियाद को मजबूत करने का काम पूरा हो जाएगा!
जिस धर्म की बुनियाद कोई व्‍यक्ति, कोई समूह, कोई साहित्‍य, कोई कला, कोई संगीत, कोई फिल्‍म आदि हिलाने लग जाए तो उस समाज के धर्मगुरुओं, विचारकों और बुद्धिजीवियों को मिल-बैठकर उस बुनियाद पर विचार करते हुए लोगों को आजादी से जीने का हक देने के लिए आगे आना चाहिए। बेवजह का वितंडा खड़ा करने से इस्‍लाम का भला नहीं हो रहा, बल्कि उसके प्रति उस और दूसरे समाज में अविश्‍वास की खाई चौड़ी होती जा रही है। इस अविश्‍वास को पाटने और लोगों के दिल से भय निकालने का काम मुस्लिम समाज को ही करना पड़ेगा और उन्‍हें समझना होगा कि इसके लिए अब कोई पैगंबर पृथ्‍वी पर नहीं आने वाले हैं! वैसे भी इस्‍लाम में पैगंबर मोहम्‍मद को आखिरी नबी माना जाता है। ऐसा लगता है कि मुस्लिम समाज यह मान चुका है कि आखिरी नबी के साथ ही इस्‍लाम में सुधार की सारी गुंजाइश भी समाप्‍त हो चुकी है, तभी तो 600 ईस्‍वी के सामाजिक और उससे उपजे धार्मिक विचार को 2013 के समाज और उसमें रहने वालों पर थोपने की कोशिश लगातार होती रहती है!


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